clicked by Mr. S |
तुम्हें फोन लगाना चाहती थी पर मैने नहीं किया. दोपहर को ही ऑफिस से निकल गई थी...दूर कहीं....कश्मकश थी मन में क्या बात करूं...क्या पूछूं तुमसे...अजीब सी दूरी महसूस हो रही थी तुमसे...पता नहीं कैसा अजनबी एहसास था तुम्हें लेकर...इतने सालों में पहली बार...
शाम को मैने फोन मिलाया तुम्हें, फोन उठाया तुमने लेकिन आवाज भी अपनी सी नहीं लग रही थी मुझे. पता नहीं क्या था...आखिर तुमसे पूछ ही लिया मैने...खामोशी थी फोन में...हम दोनों के दर्मियां भी था अजनबी एहसास और खामोशी. काफी देर बाद बस एक आवाज आई...'अब समझो माही'. तुम्हारा इतना कहना ही मेरा जवाब था..
कुछ नहीं बोली मै तुमसे...फोन रख दिया मैने. तुम वो थे ही नहीं जिसने मुझे माही बनाया...मै तो किसी अजनबी से बात कर रही थी. तुम अपना ले चुके थे, तुम्हारा फैसला था, मै कहीं नहीं थी उस फैसले में...अंगुलियों में दिन गिनने लगी थी, जेहन में एक ही बात आई 'ना जाने तुम्हारे साथ बिताने के लिए कितने दिन हैं मेरे पास'.
फोन लगातार बज रहा था....नहीं उठाना चाहती थी फोन...क्या सुनने के लिए उठाती कि अब रास्ते अलग होंगे...चल पड़ी थी फिर दूर कहीं...
:-(
ReplyDeleteफोन उठा लो माही.........
दिल को तसल्ली हो जायेगी...हमारे दिल को..
प्यार
अनु
"इस अपनी-पराई ज़िंदगी का एक रंग ये भी है जो उड़ने के बाद कसक छोड़ जाता है"
ReplyDeleteसादर..!
अक्सर लोग गलतियाँ भी स्वीकारा करते हैं फ़ोन पर ... आपको फ़ोन तो उठाना था .. माही जी
ReplyDeleteवाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDelete:(
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