About Me

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delhi, India
I m a prsn who is positive abt evry aspect of life. There are many thngs I like 2 do, 2 see N 2 experience. I like 2 read,2 write;2 think,2 dream;2 talk, 2 listen. I like to see d sunrise in the mrng, I like 2 see d moonlight at ngt; I like 2 feel the music flowing on my face. I like 2 look at d clouds in the sky with a blank mind, I like 2 do thought exprimnt when I cannot sleep in the middle of the ngt. I like flowers in spring, rain in summer, leaves in autumn, freezy breez in winter. I like 2 be alone. that’s me

Monday, December 26, 2011

ऊफ! कब तक बेलूं पापड़ :) :)

on my way to moon!
घर में एक कहानी बनाना, ऑफिस में छुट्टी के लिए एप्लाई करना, उसके बाद तैयारी करना, शारिक से लडऩा..वगैरह..वगैरह..वगैरह। घर में तो बता दिया, ऑफिस में भी हजार सोचने के बाद बॉस से बात हो ही गई। अब जब आखिरकार बॉस से छुट्टी अप्रूव हो गई तो सीट में आकर बैठी, थोड़ा पानी पिया, रिलैक्स करने की कोशिश ही कर रही थी कि दिमाग में घंटी बजी....इस लड़के के लिए पता नहीं कब तक बेलने पड़ेंगे मुझे ऐसे ही पापड? खैर चाहे पापड़ बेलने पड़े या परांठे -- उसके लिए तो कुछ भी... :-)
लेकिन ये क्या अभी लिखते-लिखते उसे ये बताने के लिए फोन किया तो ऊधर से भारी आवाज में साहब बोले माही मीटिंग में हूं बाद में बात करता हूं। ऊफ !! अब मै पापड़ नहीं रोटियां बेलना चाहती हूं :P :P
खैर, मै तो चली तैयारी करने, एक बार फिर जयुपर का सफर, सुबह उठकर शारिक के साथ चाय, शाम का नाश्ता, रात का एक साथ खाना, उस बीच गंदे घर को साफ करते हुए चिल्लाना, बिस्तर पर पड़े गीले टॉवल को देखर उसपर गुर्राना, जूते लेकर पूरे कमरे में घूमता देख आंख दिखाना.....मै चली एक बार फिर अपनी दुनिया में....
अगला अपडेट जयपुर से...

Saturday, December 24, 2011

मैंने टूटता तारा देखा

God has a big plan for me. Just not in this life
 नहीं बात करनी मतलब नहीं करनी, मत करो मुझे बार-बार फ़ोन. मन नहीं माना फिर फ़ोन घुमाया लेकिन शारिक ने भी बात ना करने की थान ली थी. थक कर मैंने भी फिर फ़ोन नहीं किया. बहुत देर बस स्टॉप पर बैठी रही, सोचा एक बार और कोशिश करती हूँ पर मन जानता था की कोशिश बेकार ही होगी. एकाएक पुराना वक़्त याद आया जब रूठना मनाना चलता था लेकिन उसमें कडवाहट नहीं होती थी. बहुत बुरा लग रहा था, वहां अकेले बैठकर और ख़राब लग रहा था. अचानक काशिफ का फ़ोन आया, फ़ोन उठाकर कुछ बोल ही नहीं पाई, पलकें ऐसी भरी थी कि ना चाहते हुए भी आंसू निकल पड़े. मेरे कुछ बोलने से पहले ही वोह समझ गया. मैंने उससे कहा मै बाद में बात करती हूँ.
अब बस स्टॉप, ठंडा मौसम, हवा, आस-पास कि चहल-पहल सब मुझे चुभने लगा था. मैंने उसे डायल करने क लिए फिर फ़ोन निकला लेकिन फ़ोन नहीं किया. सब-कुछ बिखरा-बिखरा लग रहा था, मै अब थक गयी थी और सोना चाहती थी. बस लिया, हर थोड़ी-थोड़ी देर में फ़ोन चेक करती कि कहीं उसने फ़ोन किया हो लेकिन मैंने नहीं उठाया. इसी सब में मेरा बस स्टॉप आ गया, मै घर कि तरफ बढे लगी. बहुत ज्यादा किसी से बात नहीं कि, उखाड़ा मिज़ाज देखकर माँ कुछ देर बद्बदायी. लेकिन मैंने सब अनसुना कर दिया. 
बालकोनी में जाकर बैठ गयी, माँ चिल्ला भी रही थी कि इतनी ठण्ड में बहार बैठी है, दिमाग ही ख़राब हो गया है इस लड़की का. मै कुछ नहीं सुनना चाहती थी, किसी से बात करने का भी मन नहीं था. अपने ही ख्यालों में इतनी उलझी थी कि तभी मुझे आसमान में एक टूटता तारा उटज आया, छोटे बच्चों कि तरह आँख बंद किया, "मन से  निकला अब मैं थक गयी हूँ, मुझे ज़िन्दगी अच्छी नहीं लग रही, मै इसे और नहीं चाहती... ये क्या माँगा मैंने टूटते तारे से? मै ऐसी तो नहीं थी? इतनी नेगेटिविटी कब से आ गयी मेरे अन्दर? ज़िन्दगी को हर पल जीने कि ख्वाहिश वाली माही अब ज़िन्दगी से थक गयी है.....

Thursday, December 8, 2011

जायका दिल्ली का

गुलाबी ठंड में बाहर टहलते हुए अचानक मेरे मिस्टर परफेक्ट
जायका इंडिया के विनोद दुआ के स्टाइल में बोले चलो आज किसी बड़े रेस्टोरेंट में ना जाकर चखते हैं जायका दिल्ली का...बस फिर क्या था, मै भी पूरी एक्साइटमेंट के साथ कैलोरी और मेमोरी उठाने के लिए झट से तैयार हो गई। वैसे बात तो है ठंड के दिनों में दिल्ली के स्ट्रीट फूड की बात ही कुछ और होती है।
मिस्टर नौटंकी के सिर पर जब कोई बात सवार हो जाए तो वो पूरी होकर ही रहती है।
कैलोरी और मेमोरी की शुरुआत मोमोस से हुई, फिर तो न जाने क्या-क्या खाया। पटना का एग रोल, दाल की पकौड़ी, मिर्च पकौड़ी, सूप, शकरकंद, पाइनएप्पल वगैरह..वगैरह...इधर कैलोरी की चिंता होती ऊधर उसका एक्साइटमेंट देखकर लगता कि कोई बात नहीं...कल एक घंटा वॉक ज्यादा कर लूंगी। वैसे इस बार दिल्ली में ठंड अभी तक शुरू नहीं हुई है लेकिन मंगलवार रात मौसम बहुत ही अच्छा था, ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। खाने और घूमने दोनो में ही मजा आ रहा था। फिर हमने आमिर को भी बुला लिया। और रात के करीब आठ बजे हमने रात के खाने का प्लान पुरानी दिल्ली के करीम में बनाया। वैसे भी कितना भी खाने-पीने के बाद रात के खाने के लिए हम लोग मुगलई खाना की चुनते हैं और अब तो इतने सालों में मेरी भी पसंद वही हो गई है। फिर मेट्रो लेकर हम लोग पुरानी दिल्ली पहुंचे। मोहर्रम के कारण पुरानी दिल्ली का बाजार बंद था। इससे थोड़ी भीड़-भाड़ भी कम थी। मेट्रो स्टेशन से रिक्शा लिया, कितनी भी रात हो पुरानी दिल्ली की रौनक वैसी ही रहती है। करीम पहुंचने के बाद हम लोगों ने अपना मुगलई खाना खाया। फिर वापस घर की ओर, इस तरह एक ठंड की एक खूबसूरत शाम बाइक की सवारी के सात रात के 11 बजे पूरी हुई। और इस तरह ये मंगलवार कैलोरी और मेमोरी के नाम रहा।

Wednesday, November 30, 2011

काश कर ख्वाहिश पूरी हो जाए

कितना अच्छा होता ना अगर हमारी मन में छुपी हर छोटी-बड़ी ख्वाहिश पूरी हो जाती। दुनिया इतनी सुलझी होती जैसे की परियों की दुनिया हो, जिंदगी में मुश्किले कम होती और खुशियां ढेर सारी।  ये सब सोचते हुए लगता है जैसे छोटे बच्चों को सुनानी वाली कहानी हो लेकिन मन में जब सच में ये बातें चलती है तो थोड़े समय के लिए सचमुच दुनिया खूबसूरत नजर आती है।
आज दिन के समय कुछ ऐसा ही हुआ। ऑफिस में काम करते-करते जब थक गई तो ऑफिस के टेरेस पर चली गई। गुनगुनी धूप और ठंडी हवा अच्छी लग रही थी। मन की बेचैनी समझ नहीं पा रही थी कि इतने में फोन बजा, फोन शारिक का था। फोन उठाकर अभी बात हो ही रही थी कि घूम-फिरकर बात शादी पर पहुंच गई जिससे शारिक साहब थोड़ा हिचकिचाते हैं। फिर शारिक को मैने शर्मिला टैगोर और नवाब पटौदी की कहानी सुनाई कि कैसे एक कट्टïर मुसलमान परिवार में शर्मिला ने न केवल शादी की बल्कि खुद उस माहौल में ढलकर अपने तीनों बच्चों को इस्लामिक माहौल में बड़ा किया।
एक बार फिर दोनों में शादी की बात शुरू हो गई, ये बात होते ही मेरे मन में आता है कि ऊपरवाला मेरी ये ख्वाहिश पूरी कर दें फिर मेरे हाथ दुआ के लिए कभी नहीं उठेंगे। मैने शारिक को बोला इस्लाम में भी गैर मुस्लिम लड़की से निकाह जायज बताया है अगर को इस्लाम कबूल करे। शारिक ने पूछा इस्लाम कबूल करने के लिए भी बहुत नियम होते हैं और अगर तुम्हें वो सब करने पड़े तो क्या तुम कर पाओगी? अपने रीति-रिवाज छोड़कर अपना पाओगी सब? जितना आसान तुम सोच रही हो सब उतना ही मुश्किल होगा और जाहीरन तौर पर कुछ भी संभव ही नहीं है। हालांकि मै शारिक के इन सवालों का बहुत सहज उत्तर दिया लेकिन मन में एक बात कही कि तुमसे शादी मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी ख्वाहिश है और तुम हमेशा मेरे साथ रहो तो मै हर मुश्किल को पार कर लूंगी।

Monday, November 7, 2011

फिर एक दुआ....

अचानक तड़के आंख खुल गई, आंख खुलते ही अजान की आवाज कानों में गूंजी। जब आंख खुली तो उठकर बैठी फिर याद आया कि आज ईद है। एक अजीब सी सरसराहट दौड़ गई पूरे शरीर में कि कितना अच्छा इत्तेफाक है ईद में अजान सुनकर आंख खुली, वरना तो मम्मी के चिल्लाने पर भी नींद नहीं टूटती। मुझे इस्लामिक नियमों का तो नहीं पता लेकिन दिल ने दुआ जरूर की...
शारिक ईद के लिए दिल्ली में ही है, उसके और काशिफ के लिए ईद के कपड़े भी मैने यहीं से ले लिए थे। दोनों के लिए दो खूबसूरत रंग के कुर्ते खरीदे। ये सब करते हुए बहुत अच्छा लग रहा था। मन में बार-बार एक ही बात आती है कि ऊपर वाला हमेशा मुझे ये मौका दे। बहुत कोशिशों के बाद भी रिश्ता सही दिशा में नहीं जा पा रहा है। अब न तो उसके पास बहुत वक्त है और न मेरे पास। रात को आंख बंद करते वक्त और सुबह आंख खोलते वक्त एक ही दुआ करती हूं कि ऊपर वाला इस रिश्ते को धर्म से ऊपर कर दे और हम इसी तरह हर त्योहार एक साथ मनाएं।
..... आमीन

Tuesday, October 18, 2011

मुझे आज भी याद है...

Just wanted to let you know... You're in my thoughts... all the time!
 ऐसी ही गुनगुनी धूप, अचानक बदलता मौसम और ठंड की आहट के बीच हम दोनों शिप्रा सनसिटी के पास बने टंडे कबाब में खाना खाना गए थे। वैसे तो बात बहुत साल पहले की है लेकिन इस दिवाली की तैयारियों के बीच अचानक मुझे वो दिन याद आ गया।  वो भी दिवाली के आस-पास के ही दिन थे। दिवाली की तैयारियों को लेकर शारिक हमेशा ही मुझसे अपडेट लिया करता था। मै भी उत्साहित रहती थी। खुले आसमान के नीचे बैठकर जब हम खाना खा रहे थे अचानक मैने चहकते हुए बोला शारिक दिवाली वाले दिन शिप्रा वाले फ्लैट में भी दिए जलाना, बहुत खूबसूरत दिखेगा घर। शारिक ने हामी भरी, लेकिन बहुत ज्यादा कुछ नहीं बोला।
खाना खाने के बाद हम घूमे फिरें फिर उसने मुझे घर छोड़।
इन्हीं तैयारियों के बीच दिवाली भी आ गई। उस दिन मै सुबह के वक्त शारिक से मिलने आ गई। हम दोनों घूमे फिरे, फिल्म देखी, खाना-खाया, पिज्जा खाया और खूब मौज-मस्ती की। इस बीच हमेशा की तरह नोंक-झोंक भी हुई लेकिन दिन बहुत अच्छा गुजरा। शाम होते ही शारिक ने मुझे घर छोड़, उसने मां के लिए एक गिफ्ट भी लिया थो जो गाड़ी से उतरने के बाद उसने मुझे दिया। मुझे भी ये देखकर अच्छा लगा। गाड़ी से उतरने के बाद मैने फिर याद दिलाया कि घर में दिए जरूर जलाना देखो चारों ओर कितनी रोशनी है, वो मुस्कुराया और चला गया।
खूब अच्छी रही वो दिवाली भी घर में मौज मस्ती हुई, मेहमानों का आना-जाना हुआ। खुश भी बहुत थी उस दिन मै। अगले दिन ऑफिस से लौटते हुए शारिक मुझे ऑफिस से लेने आया। मैने पूछा क्या तुमने घर में दिए जलाए थे, पहले उसने बात टाली फिर बोला नहीं माही, हम लोगों में ऐसा करना मना है, मै ये नहीं कर सकता। मै थोड़ी देर चुप रही। मैने कहा शारिक जब मै तुम्हारे साथ ईद मना सकती हूं तो तुम दिवाली क्यों नहीं? कोई भी त्योहार खुशियों का होता है घर में दिए जलाने का मतलब ये तो नहीं कि तुम्हारा धर्म परिवर्तन हो गया। उस दिन का दिन था और आज का दिन है मै गलती से भी किसी त्योहार के बारे में उससे कोई जिक्र नहीं करती। बुरा जरूर लगा था इसलिए शायद वो बात आज तक दिल के किसी कोने में है।

Monday, October 3, 2011

...और जब लगी बिरयानी की तलब

इस वीकेंड शारिक साहब दिल्ली में थे। छुट्टि के दिन देर से सोकर उठने के बाद बातों-बातों में ही समय निकल गया। जब बहुत दिन चढ़ा तो दोपहर के खाने के सुद हुई, आमिर के घर (जहां शारिक आकर ठहरता है) के किचन की हालत देख खाना बनाने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाई। भूख तेज लग आई थी, इतमें में आमिर को फोन करके बुलाया गया। अब तय हुआ कि बाहर खाना-खाकर आते हैं, जब बाहर खाने की बात हुई तो बिरयानी खाने के लिए पुरानी दिल्ली के करीम में जाए बिना रहा नहीं गया। बहुत बार नहीं जाने की बात करके भी हम तीनों पुरानी दिल्ली जाने के लिए तैयार हो गए।
अब दूसरी परेशानी बिना कार के वहां तक जाया कैसे जाए। फिर आमिर की नई एवेंजर बाइक में तीनों लदे और मानसरोवर मेट्रो स्टेशन तक पहुंचे। वहां से मेट्रो लिया फिर चांदनी चौक उतरे, स्टेशन से बाहर आकर चांदनी चौक की तंग गलियों और जाम लगी सड़कों पर बहुत देर पैदल चलने के बाद एहसास हुआ कि हमें चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन उतरना चाहिए था। फिर उन गाडिय़ों की चिलपौं के बीच रिक्शा किया, रिक्शा लाल किले से ही जाम में फंस गया, धूप की तपिश में पुरानी दिल्ली के ऊंचे बने रिक्शे में तीनों बैठे यही सोच रहे थे कि क्या सूझी कि पुरानी दिल्ली आने का मन बना। आधा घंटा जाम में फंसे रिक्शे के बाद रिक्शा छोडऩा बेहतर समझा, फिर पैदल उतरकर मीना बाजार के रास्ते करीम तक चलकर जाने लगे।
चारों तरफ शोर, लोगों की भीड़, सजे बाजार और नॉनवेज की खुशबू से तो मानो भूख और बढ़ रही थी लेकिन रास्ता था जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। यही बाइक, मेट्रो, रिक्शा और पैदल रास्ता तय करने में ही साढ़ तीन बज गए थे। लग तो रहा था जैस करीम में खाना मिलेगा ही नही। जैसे-तैसे करके हम तीनों आखिरकार करीम पहुंच ही गए। बस फिर क्या था खूब सारा मुगलई खाना ऑर्डर किया गया। इसमें चिकन बिरयानी, मटन बिरयानी, मीठी रोटी और भी कई तरह की चीजें मंगवाई, खाना आते ही हम तीनों खाने पर ऐसे टूटे जैसे कितने महीनों से भूखे हों, जमकर खाना खाया। खाना खाने के बाद लगा जैसे पुरानी दिल्ली में करीम का स्वाद का कोई जवाब ही नहीं। इतनी मेहनत करने के बाद जैसे खाने का स्वाद और दिनों से ज्यादा बढ़ गया था। खाना के जामा मसजिद घूमते हुए तीनों बात करने लगे कि क्या तलब थी बिरयानी खाने की कि हमने बाइक चलाई, हम मेट्रो पर चढ़, हमने रिक्शा लिया, हम रिक्शे से जाम में फंसे, हम पैदल चले  लेकिन बिरयानी हमने पुरानी दिल्ली के करीम में ही खाई.....

Thursday, September 15, 2011

अंदर-बाहर

अभी कुछ हफ्ते पहले शारिक साहब दिल्ली में थे। अपने ऑफिस की मीटिंग करने के बाद वो मुझसे मिलने आया। हम लोगों को थोड़ी खरीदारी करनी थी तो हम लोग एक मॉल में चले गए। मॉल में जाते ही पहले खाया-पिया फिर खरीदारी करनी शुरू  की। अक्सर हम दोनों जब साथ खरीदारी करने निकलते हैं तो शारिक खा-पीकर पहले फिट हो जाता है जिससे पूरी शॉपिंग के दौरान एनर्जी मिले। बहुत सारी शॉपिंग हुई उसमें मेरी कम उसकी ज्याद थी। घर के लिए भी कुछ सामान था, पर्दे, चादरें.....खैर उस दिन अच्छी शाम गुजरी। अच्छी शाम गुजरने से मतलब है किसी भी बात को लेकर हम दोनों की बहस नहीं हुई। शॉपिंग के बाद दोनों ही थक गए थे तो सोचा सीसीडी में बैठकर आराम से कॉफी पिया जाए। दोनों ही गए और अपनी-अपनी पसंद की कॉफी ऑडर की, इत्मीनान से बैठकर कॉफी पिया फिर मॉल से बाहर निकलने लगे। लेकिन घर जाने का मन दोनों का ही नहीं था। उसे दोबारा रात में लौटकर जयपुर जाना था। तो हम दोनों ही मॉल के बाहर बने चबूते में बैठ गए। यहां सीसीडी दिख रहा था, कुछ देर पहले अंदर हम-दोनों सीसीडी की जिस टेबल-कुर्सी पर बैठे थे अब वहां कोई और जोड आकर बैठा था। हम दोनों बातों में थे लेकिन दोनों का ही ध्यान अलग-अलग बार वहां जा रहा था। थोड्ी देर बाद बातें कब बंद हो गई हमें पता ही नहीं चला। अब हम चुपचाप उन लोगों को देख रहे थे। लड़का-लड़की ने अपने लिए कॉफी मंगाया फिर बात करने लगे। थोड़ी देर बाद लड़की ने लड़के को एक तोहफा निकालकर दिया। लड़के के चेहरे पर एकाएक मुस्कान आ गई। ये सब नजारा हम दोनों बाहर से बैठकर देख रहे थे। लड़के ने तोहफा खोला तो उसमें से एक घड़ी निकली, लड़के ने खुश होकर लड़की का हाथ चूमा... अभी मै इन दोनों को देखने में ही खोई हुई थी कि अचानक शारिक की आवाज आने लगी.... लेलो लेलो बेटा अब कुछ महीने बाद इसी घड़ी को दिखा-दिखाकर ताने मारे जाएंगे--पहले तो समय से पहले ही आते थे, अब दस मिनट का इंतजार भारी होता है, लंच में तुम्हारा फोन आता था अब तुम्हे फर्क ही नहीं पड़ता मैने खाना खाया या नहीं वगैरह..वगैरह..वगैरह...... शारिक की बात सुनकर मुझे भी हंसी आ गई। फिर शांत होकर चुपचाप एक बात बोला माही वक्त के साथ रिलेशनशिप मैच्योर हो जाता है बदलता नहीं है।

Thursday, September 1, 2011

....एक और अफसोस


तुम 1 सितंबर की वापसी की फ्लाइट बुक कर लो.. बस मै कुछ नहीं जानती। बर्थडे वाले दिन मेरे साथ रहना मैने कुछ प्लान किया है। 
- माही ऐसा नहीं हो सकता... मै ईद पर घर जा रहा हूं और मै ईद के अगले दिन वापस नहीं लौट सकता। 27 अगस्त को जाऊंगा और 3 सितंबर को ही लौटूंगा। तुम मेरा बर्थडे 3 को ही मना लेना। 
बस कुछ इसी तरह की बहस पूरा अगस्त मेरे और शारिक के बीच चली। ईद के लिए शारिक घर जा रहा था और मै उसे बस इतना रिक्वेस्ट करती रह गई कि जन्मदिन वाले दिन दिल्ली लौट आना, फिर हम जयपुर चले जाएंगे। लेकिन शारिक अपनी जिद में और जिद में मै भी कम नहीं हूं। पता था इतना लड़ाई झगड़ा करके भी उसका फैसला नहीं बदलेगा लेकिन फिर भी...... इतना झगड़ा हुआ जिसकी कोई हद नहीं। 27 की सुबह शारिक और काशिफ दिल्ली पहुंच गए। शारिक की दोपहर को फ्लाइट थी, मुझे पता था दिल्ली आने के बाद उसे जरूर मेरे ऊपर प्यार आएगा। लेकिन इस बार मेरा गुस्सा आपे से बाहर था, उसके जाने के करीब चार दिन पहले से मैने उससे बात करनी बंद कर दी थी। उस दिन सुबह से ही मैने फोन बंद करके रखा था, ऑफिस की छुट्टïी भी थी चाहती तो जाकर मिल सकती थी लेकिन मैने भी ठान ली थीए इस बार मुझे कॉम्प्रोमाइज करना ही नहीं है। 
खैर शारिक ने बहुत कोशिश की और आखिर फ्लाइट के टाइम से पहले एसएमएस कर दिया कि निकल रहा हूं। तकलीफ हो रही थी, पर मै पता नहीं मन ही नहीं हुआ। हमेशा से मै चाहती हूं कि शारिक घर और मुझे बैलेंस करके चले, लेकिन वो ऐसा कभी नहीं करता। घर पहुंचकर भी उसने बहुत बार फोन किया लेकिन मैने उठाया ही नहीं। कल ईद थी और आज उसका बर्थडे है । ये पहली ईद और बर्थडे है जब मैने उससे बात नहीं की है। बहुत सारे अफसोस है जिंदगी में एक और अफसोस सही। 

Friday, August 26, 2011

याद आई खुशी की वो पहली उड़ान


Aamer Palace Jaipur
आज अचानक वो दिन याद आ रहा है जब हर डर को पीछे छोड़कर मैने खुशी की पहली उड़ान भरी थी। पहली बार अकेले दिल्ली से बाहर जाने की हिम्मत की थी। पता नहीं क्या हुआ आज ऐसा, ऑफिस में काम करते हुए खिड़की से बाहर बरसते पानी को देखकर एकाएक वो सब याद आने लगा जब शारिक के दिल्ली छोड़कर जयपुर जाने के बाद मै पहली बार जयपुर गई। सच में बहुत हिम्मत वाला कदम उठाया था। बस तेज बारिश के साथ अचानक सब ऐसे सामने आ रहा था जैसे कोई फिल्म चल रही हो। 
हमेशा सुना करती थी प्यार कुछ भी करवा सकता है लेकिन हमेशा जेहन में एक ही बात आती थी कि क्या सच में ऐसा होता है। यकीन तब हुआ जब खुद इस एहसास को जिया। शारिक...मेरी जिंदगी...मेरी पूरी दुनिया। मेरी और शारिक की कहानी दिल्ली में शुरू हुई थी। दो अलग सोच के इंसान कब एक साथ चलने लगे पता ही नहीं चला। लेकिन अचानक शारिक को जयपुर शिफ्ट होना पड़ा। ये 2010 की बात है। दिल्ली छोड़कर जब वो जा रहा था जैसे अब कहानी यहीं खत्म हो जाएगी, लग रहा था पता नहीं सब कैसे चलेगा, कैसे मिलेंगे। मन बहुत उदास रहता था और जब भी हम मिलते थे तो सिर्फ उदासी होती थी। खैर शारिक फरवरी में जयपुर शिफ्ट हो गया। कुछ सप्ताह तो वो नियमित आता रहा लेकिन काम के दबाव में ये सिलसिला कम होता गया। एक दिन शारिक ने कहा तुम जयपुर आओ, खूब घूमेंगे फिरेंगे, मस्ती होगी। ये सब सुनकर अच्छा तो लग रहा था लेकिन समस्या थी कि जाऊं तो जाऊं कैसे। पहले कभी घर से अकेले बाहर नहीं गई थी, घर में क्या बताऊं, कैसे झूठ बोलूं वगैरह..वगैरह। लेकिन प्यार की ताकत ने सब डर को पीछे छोड़ दिया। एक सहेली के साथ प्लान बनाया और घर में बताया कि उसके दीदी के घर जयपुर जा रही हूं। प्लान के मुताबिकसब तय हो गया। शारिक के पटना से आए दोस्त मुनीर और काशिफ के भाई आमिर का भी मेरे साथ चलीने का प्लान बन गया। 24 अप्रैल 2010 था, शारिक की गुड्गांव मीटिंग थी तो तय हुआ कि शारिक हमें वहां से गाड़ी में ही ले जाएगा। पांच दिन घर से दूर अपनी दुनिया में जाने की खुशी को शायद ही मै शब्दों में बयां कर पाऊं। तय दिन मै, मुनीर और आमिर गुडग़ांव पहुंचे। अब शारिक की मीटिंग में इतनी देर हुई कि सुबह के पहुंचे हमें रात हो गई। खैर जो भी हुआ खाना खाने के बाद रात करीब 8 बजे हम गुडग़ांव से चले और सफर शुरू हुआ जयपुर का। रास्तेभर दोस्तों के साथ मौज-मस्ती, यकीन ही नहीं हो रहा था मै शारिक के साथ इतनी रात को। सबकुछ खुशनुमां लग रहा था, रोजमर्रा की घड़ी के साथ  वाली जिंदगी बहुत पीछे छूट गई थी। देर रात ढाबे में खाना खाया, गाना गया और इस तरह दिल्ली से जयुपर का 6 घंटे का सफर हमने 8 घंटे में पूरा किया। हम रात के 3 बजे करीब जयपुर पहुंचे।  जिसको जहां जगह मिली वहां सो गए। अगले दिन जब सुबह आंख  खुली तो यकीन ही नहीं हुआ कि मै दिल्ली में नहीं हूं। 
वैसे घर से दूर शारिक के साथ का वो वक्त मुझे बहुत भा रहा था। एकदम आजाद, उन्मुक्त जिंदगी, न सोने का समय न खाने और न ही समय की कोई पाबंदी। बस सुबह से जो हम लोगों का दिन शुरू होता आधी रात को जाकर खत्म होता। इस बीच सबसे बड़ी मुश्किल होती घर में मम्मी को फोन करना, इसके लिए पूरा माहौल तैयार करना पड़ता था। एक फोन करने के बाद पूरे दिन उनका एक भी फोन नहीं आता। उन पांच दिनों में मैने पूरा जयपुर देख लिया। एक बात जो आज भी मुझे याद आती है, एक शाम हम बाहर घूम रहे थे, शारिक मुझसे अचानक बोला आज शाम पहले से ज्यादा अच्छी लग रही है। सच में खूबसूरत लग रही थी वो शाम, इतने लोगों के बीच में हम अपनी ही दुनिया में थे। 

Thursday, August 25, 2011

एक और सफर


Nahargarh Jaipur
दिल्ली से जयपुर जाना अब मेरे लिए अपने घर से उत्तम नगर जाना जैसे हो गया है। कहने का मतलब है कि जयपुर जाने का सिलसिला अब बढ़ गया है। इस बार भी कुछ ऐसा हुआ, वीकेंड था और मेरी जयपुर जाने की तैयारी भी पक्की हो गई। अछी बात ये थी कि शारिक रक्षाबंधन की छुट्टिïयों से ही दिल्ली में था। अब उसे मैने अपनी जाने की बात बताई और कहा कि तुम बुधवार दिल्ली रूको तो गु़रुवार शाम हम कार से ही जयपुर के लिए रवाना हो जाएंगे। खैर शारिक ने पहले तो मना किया लेकिन मेरी जिद के आगे उसे हार माननी ही पड्ती है। कुछ ज्यादा ही उत्साहित थी मै शारिक के साथ जयपुर जाने को लेकर। काशिफ भी दिल्ली में था लेकिन वो एक दिन पहले ही जयपुर के लिए निकल गया था। अब बस गुरुवार को ऑफिस के बाद हम दिल्ली से रवाना हुए। इस बार मेरा जयपुर जाने का मकसद रमजान था ताकि मै उनके तरीके से त्योहार को मना सकूं।
उस दिन मौसम का मिजाज भी बहुत अच्छा था। रात के करीब नौ बजे हमने निजामुद्दीन के करीम में खाना खाया। अक्सर खाने के लिए हम लोग यहीं आया करते हैं। उसके बाद के साढ़े दस बजे हमारी ड्राइव शुरू हुई जयपुर के लिए। रात का सन्नाटा, हल्की बारिश और रेडियो के पुराने गाने पूरी तरह से पिक्चर परफेक्ट थी। बहुत अच्छा लग रहा था शारिक के साथ। अक्सर इस तरह की लांग ड्राइव में शारिक मुझे गाने भी सुनाया करते है। और गाने ऐसे कि वो सिर्फ मै ही सुन सकती हूं। खैर शारिक के उन बेसुरे गानों से सफर और भी खूबसूरत लग रहा था। दिल्ली जयपुर हाईवे पहुंचते ही मानों हमारी गाड़ी हवा से बातें कर रही थी। बहुत ही खास एहसास था, लग रहा था मानो हमारा ये सफर ऐसा ही चलता रहे, ये जानते हुए भी कि मै और शारिक जिंदगी में कभी साथ नहीं चल  सकते। ये एक ऐसी हकीकत है जो मेरे साथ चलती है लेकिन इसके बाद भी मै अपनी जिंदगी शारिक के साथ ऐसे जीती हूं जैसे कल रहूंगी ही नहीं।
 इस खूबसूरत सफर में सिर्फ एक चीज बाधा लग रही थी, वो था गाड़ी का एसी। मुझे बाहर की ठंडी हवा अच्छी लग रही थी कि लेकिन हाईवे में खिड़की खोलकर गाड़ी चलाना संभव ही नहीं है। शारिक की बांहों में पुराने गानों के साथ रास्ते में कुछ जगहों में रूकते हुए हमारा सफर रात के साढ़े तीन बजे पूरा हुआ। साढ़े तीन बजे हम घर में थे और घर की हालत देखकर मुझे जयपुर पहुंचने की खुशी से ज्यादा चिंता हो रही थी कि पूरा अस्त-व्यस्त घर को कल सुबह से उठकर ही समेटना पडृेगा। मै अक्सर त्योहार के मौके पर कोशिश करती हूं कि एक दिन शारिक के साथ जरूर बिताऊं, खासतौर पर उनलोगों के त्योहार। इस बार भी दो दिन के लिए जयपुर जाने का मकसद रमजान ही था। मेरे मन में हमेशा रहता है कि मै शारिक के साथ नहीं रह पाऊंगी तो क्यों ना जितने दिन हम साथ में है मै अपनी पूरी जिंदगी जी लूं। बस इसी एहसास के साथ मेरा हर एक दिन गुजर जाता है। अगले दिन सुबह दोनों ही ऑफिस निकल गए। हर बार की तरह उनके जाने के बाद मै बाई के रोल में आ गई। दोपहर के दो बज गए घर साफ करते हुए। तभी शारिक का फोन आया, उसने पूछा मै क्या कर रही हूं, मै बताया अभी सफाई पूरी हुई है, इसके बाद नहाकर मै शाम के इफ्तार की तैयारी करूंगी। मै उससे कहा तुम टाइम से घर आना मै इंतजार कर रही हूं। बहुत अच्छा लग रहा था। मुझे एक पल के लिए ऐसा एहसास हुआ जैसे सिर्फ माही नहीं माही शारिक अहमद हूं। शाम के इफ्तार के लिए मैने प्याज की पकौड़ी, आलू की पकौड़ी, साबूदाने का पुलाव, साबूदाने के पकौड़े और खीर बनाई उसे मैने अच्छे से डाइनिंग टेबल पर सजाया। तब तक शारिक भी घर आ गए थे और हम दोनों टीवी देख रहे थे। इफ्तार का समय हुआ और हम दोनों इफ्तार करने बैठे, मैने रोजा तो नहीं रखा था लेकिन इफ्तार के वक्त मैने यही दुआ कि हमदोनों हमेशा साथ रहे। कहते हैं इफ्तार के समय की जाने वाली दुआ अल्लाह कबूल कर लेते हैं। आमीन....

Saturday, August 6, 2011

दिल्ली की बारिश और यादें

 mansarover flat's main gate, jaipur
दिल्ली की बारिश की बात ही कुछ और है. हालाँकि दिल्ली में बारिश अब नाम के लिए ही रह गयी है लेकिन फिर भी यहाँ के हर मौसम की अपनी ही खासियत है. एक अजीब सी मोहब्बत है इस मौसम से, बारिश की अपनी ही बात है, सब कुछ उजला, धुला हुआ, और जब बारिश की बूँदें चेहरे को छूती है तो मनो इसका संगीत एक नई ताजगी देता है. हर बरसात के साथ जुडी कुछ ख़ास याद. स्कूल, कॉलेज, ऑफिस हर दौर की कुछ कुछ बातें जो हमेशा ही याद आती है. बचपन में बारिश के पानी को जमा करके उसमें नाव चलाना तो कॉलेज के दिनों में क्लास बंक करके दोस्तों के संग मौज-मस्ती, सड़क किनारे जमा पानी में छई-छप-छई तोह घंटो बारिश में बस स्टॉप में बैठना. इन सब मस्ती के बाद भी मै बारिश के साथ एक ख़ास वक़्त बिताती थी. लेकिन अब वक़्त के साथ सब कुछ छूटता जा रहा है. आज भी बारिश तो होती है लेकिन मौज मस्ती के नाम पर ऑफिस का अपना डेस्क, किताबें, चाय और खिड़की से बहार बरसते पानी का नज़ारा. दिल्ली की भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी में अब फुर्सत के पल कहीं बहुत पीछे छूटते रहे हैं. लें आज भी अगर मौका मिलता है तो मै अपना बैग लिए इंडिया गाते की ओर चल देती हूँ, खुद के साथ थोडा वक़्त बिताने के लिए. सड़क किनारे बच्चों को बारिश में खेलता देख, स्कूल से घर जाते बच्चों को देख, कॉलेज के स्टुडेंट्स को बस स्टैंड में देख वो दिन याद आ जाते हैं. इस तरह चलते-चलते कई बातें आँखों के सामने आती हैं, छोटी-छोटी खुशियाँ आज भी चेरे पर मुस्कान ले आती है. फिर अचानक एहसास होता है न जाने वो वक़्त कहाँ खो गया है. पहले कुछ नहीं होता था लेकिन ढेर सारी खुशियाँ होती थी, आज सब कुछ है लेकिन खुश होने के लिए कुछ नहीं है. ज़िन्दगी इतनी उलझ गयी है की पता ही नहीं है क्या हो रहा है. अब सब कुछ बदल गया है, हमेशा कुछ खोने का डर, वक़्त एक जैसा न होने का दुःख, सब कुछ पहले जैसा न होने की एक खीज है. लगता है वक़्त एकबार फिर पीछे चला जाये. बस ज़िन्दगी खुलकर जीने का मन है, ऐसे जीने का जैसे कल सब ख़तम हो जाएगा, सिर्फ आजभर का वक़्त है. 

Friday, August 5, 2011

पता नहीं वक़्त बदलता है या लोग

वक़्त तो तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन समझ ही नहीं आता है की वक़्त बदलता है या लोग? इस बात को लेकर मेरे और शारिक के बीच न जाने कितनी ही बहस होती है, उसका कहना होता है की वक़्त के साथ रिश्ते गंभीर होते हैं तो मुझे लगता है लोग बदलते हैं. बदलाव चाहे जिमेदारियों की वजह से आये या फिर काम की वजह से बदलाव तो आते ही हैं. अब मै आपको  2 अगस्त का किस्सा सुनाती हूँ. यह हमारी एनिवेर्सेरी है, हर साल की तरह मुझे इंतज़ार की साहब मुझे फ़ोन करेंगे, हम लोग बात करेंगे और एक बार फिर पुराने दिन को याद करेंगे. इन सब बातों के साथ मेरे दिन की शुरुआत हुई. सुबह मै तैयार हुयी और मैंने वही कपडे पहने जो कभी मै उससे पहली बार मिलने पर पहने थे. अच्छा लग रहा था, सुबह से मई बहुत कुश भी थी. लेकिन मेरी ख़ुशी दोपहर तक गायब हो रही थी. मेरी नज़रें सिर्फ और सिर्फ फ़ोन पर थी. लेकिन 2 बजे तक भी शारिक ने कोई फ़ोन नहीं किया तो मैंने ही हार कर उसे एक sms किया..sms में लिखा " happy 2 august..love u n thnx for not remembering the day" थोड़ी देर बाद उसका भी जवाब आया; लेकिन अब भी उसके पास इतनी फुर्सत नहीं थी की वो एक फ़ोन करे. गुस्सा तो बहुत आ रहा था पर उससे भी ज्यादा वो सब बातें याद आ रही थी जहाँ से सब कुछ शुरू हुआ था. 
अब मेरा ऑफिस भी नॉएडा हो गया है. मेरी और शारिक की कहानी भी यहीं आस पास से शुरू हुई थी. शारिक शिप्रा सनसिटी में रहता था. बस काम में मन ही नहीं लग रहा था. थोड़ी देर सीट में बैठने के बाद मै ऑफिस की छतपर चली जाती. इस ऑफिस की छत से सनसिटी साफ़ नज़र आता है. बस चाय की चुस्की और हलकी बारिश में मै मनो फ्लाश्बैक में चली गयी थी. ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत वक़्त मनो उन कुछ घंटो में मैंने देखा.  मन कर रहा था वक़्त एक बार फिर पीछे चले जाये और मै उस ज़िन्दगी को एक बार फिर से जे लूँ. सनसिटी के वो दिन बहुत याद आते हैं आज भी. वो इत्मीनान, वो सुकून, वो ख़ुशी, वो पल आज चाह कर भी नहीं मिल सकते हैं. खैर जैसे तैसे शाम तोह गुज़री लेकिन उदास होने के साथ ही गुस्सा भी बहुत आ रहा था. लग रहा था फ़ोन करके खूब झगडा करूँ फ़ोन भी किया, झगडा शुरू भी हुआ लेकिन रोज़ा चलने की वजह से ज्यादा नहीं झगड़ी.
परेशान मै बस सुकून ढून्ढ रही थी, मैंने ऑफिस से ऑटो किया और सीधा आनंद विहार आ गयी. पहले सोचा घर जून, फिर मन में आया क्या हुआ अगर शारिक साथ नहीं है तो, मै तोह उस जगह जा ही सकती हूँ जहाँ हम मिले. मै ऑटो से उतरकर सीधा edm mall आ गयी. मैंने वहां straberry crush icecream लिया और जाकर उस्सी जगह में बैठ गयी जहाँ मै और शारिक जाया करते थे. एक बार फिर वही सब आँखों के सामने से गुज़र रहा था. मैंने शारिक को फ़ोन किया, और पूछा सिर्फ एक बात बता दो शायद यही सुनकर थोडा ठीक लगे, सिर्फ इतना बता दो की वक़्त बदलता है लोग ? लेकिन उसकी तरफ से कुछ जवाब नहीं आया, अक्सर ऐसे जवाब शारिक हमेशा देने से बचता है. लेकिन मेरे सच में कोई बताये वक़्त बदलता है या लोग???

Tuesday, March 29, 2011

प्यार के भूत ने डराया

Jaipur road view from volvo
शारिक के साथ लम्बे समय से बहुत झगडा चल रहा था . झगडा ऐसा कि उसका कोई हल नहीं. लेकिन इतना ज्यादा तनाव अब बर्दाश्त के बहार हो रहा था. ऊपर से साहब का उखाड़ा मिजाज़. समझ ही नहीं आ रहा था कि किस तरह सब ठीक हो. ऑफिस से निकलते ही मेरा पहला काम होता है शारिक को फ़ोन करना. लेकिन इतने लड़ाई झगडे के बीच वो मुझसे बात तक नहीं कर रहा था. इस सिलसिले को अब बहुत दिन हो गए थे.  अगर भूले भटके किसी भी तरह हम फ़ोन पर आते भी तो मिनट नहीं लगता झगडा शुरू होने में. बस फिर तो फ़ोन पर रोने और चिल्लाने के अलावा कोई बात ही नहीं होती. कुछ देर बात दोनों ही फोन रख देते. बात इतनी बिगड़ने लगी थी कि शारिक के साथ ही रहने वाले उसके बचपन के  दोस्त काशिफ के साथ भी अब ख़राब बर्ताव कर रहा था. इससे उन दोनों के बीच मनमुटाव बढ़ रहा था, चीज़ें लगातार ख़राब हो रही थी.जब कभी मै फ़ोन में इस बारे में कुछ पूछती तो उसे अच्छा नहीं लगता, काशिफ  से पूछती तो उसे भी इस बारे में कोई बात नहीं करनी होती. मैंने 24 मार्च 2011 को सोचा कि अब जयपुर जाकर ही दोनों से बात करनी होगी. इस बारे में मैंने शारिक को कुछ नहीं बताया. लेकिन काशिफ ज़रूर जनता था कि मै शनिवार को आ रही हूँ. घर में माँ के सामने भूमिका बनायी कि किसी सेमिनार के लिए गुडगाँव जाना है और लौटना सोमवार 28 मार्च को होगा. बस जिस तरह से मैंने प्लान बनाया उसी के मुताबिक मैंने शुक्रवार को अपना बैग तैयार किया. दो दिन के मुताबिक कपडे और ज़रूरी सामान रख लिया. ऑफिस के काम कि वजह से शनिवार को घर से भी जल्दी निकलना पड़ा. ऑफिस का काम भी इतना हो गया था कि शाम के साढ़े सात बज गए और मै निकल ही नहीं पा रही थी. काशिफ का फ़ोन आया तो उसे बताया कि 8 बजे ऑफिस से निकलूंगी. मेरा ऑफिस दिल्ली के दिल यानि कनाट प्लेस में है. हालाँकि वहां से जयपुर कि बस के लिए बीकानेर हाउस पहुँचने में भी ज्यादा समय नहीं लगता, लेकिन उस दिन मानो घडी कि सुइयां उड़ान भर रही हो. 8 बजे मै ऑफिस से निकली, जयपुर पहुँचने कि जल्दी में उस दिन मुझे न तो कनाट प्लेस कि सडकें अच्छी लग रही थी, न सेंट्रल पार्क की रौनक, न उस दिन का अच्छा मौसम . परेशानियाँ यहीं कम नहीं हुयी थी, ऑफिस से बाहर निकलने के बाद ऑटो ही नहीं मिल रहा था, देर पर देर हो रही थी. दिमाग में बस एक ही बात थी कि कैसे भी जल्द से जल्द जयपुर पहुंचना है. ये जानते हुए भी कि बस को जितना टाइम लेना है उतना वो लेगी ही. खैर मैंने इसी उधेड़ बुन में एक ऑटो किया और सीधा जाकर बीकानेर हाउस उतरी. सबसे पहली जो बस थी उसका टिकेट लिया और बस में बैठ गयी. अजीब भूत सवार था मेरे दिमाग में, लग रहा था की 6 घंटे का सफ़र कुछ ही देर में पूरा हो जाये. बस चलने के बाद मैंने काशिफ को बता दिया. उस वक़्त तक भी साहब का मेरे पास कोई फ़ोन नहीं आया था, वो भी जिद में था और मै भी अपनी जिद में. किताब पढ़ते हुए और गाने सुनते सुनते मेरे जयपुर का सफ़र शुरू हुआ. लेकिन न तो किताब में मन लग रहा था और न ही गानों में. 
पहले सोचा कि काशिफ को बस स्टैंड लेने आने को कहूँ, फिर सोचा कि शारिक को ही एक  घंटे पहले फ़ोन करके कहूँगी कि बस स्टैंड लेने आओ. अब जयपुर महज़ 74 किलोमीटर रह गया था मैंने शारिक को फ़ोन करना शुरू किया. उस वक़्त रात के सवा एक बज रहे थे. लेकिन हज़ार बार फ़ोन करने के बाद भी उसने फ़ोन नहीं उठाया. फिर मैंने काशिफ को कहा कि तुम ही आ जाओ. रात के नक्स बजे बस जयपुर के  बस स्टॉप सिन्धी कैंप पहुंची. काशिफ वहीँ खड़ा था. हम गाडी में बैठे और रात के ढाई बजे घर आये. शारिक अपने कमरे में सो रहा था. काशिफ और मै सुबह के करीब साढ़े चार बजे तक बात करते रहे. अचानक देखा कि नींद शारिक  अपने कमरे से बहार आया और फ्रिज खोलकर पानी पीने लगा. फिर बाथरूम कि तरफ चला गया. मैंने जल्दी से काशिफ को सोने के लिए कहा और बाहर के कमरे कि लाइट बंद करके साहब के कमरे में चली गयी. कमरे कि लाइट बंद थी, मै जाकर चुप चाप बिस्तर में जाकर बैठ गयी. थोड़ी देर बाद शारिक कमरे में आया नींद में अचानक अँधेरे कमरे में इस तरह एक लड़की को बैठा देख उसके चेहरे कि हवाइयां उड़ने लगी. आँख मलकर उसने दो बार ठीक से देखने की कोशिश की जब उसे सच में वहां किसी के होने का एहसास हुआ तो वो कमरे से बहार चला गया. उसके बाद मै उसके आने से पहले दरवाज़े के पीछे जाकर खड़ी हो गयी. फिर थोड़ी देर बाद वो कमरे में आया, बाहर से ही एक बार कमरे में झाँका, अन्दर आकर ठीक से बिस्तर को देखा और उसके बाद उल्टा होकर सो गया. ठीक इसके बाद मैंने कमरे का दरवाज़ा बंद किया, दरवाज़ा बंद करने की एक अजीब सी आवाज़ हुई, मै उसके पास गयी और उसके ऊपर जाकर सो गयी. डर से वो चीख कर उठा और बोलने लगा कौन है और यह बोलते हुए काशिफ को आवाज़ देने लगा. फिर अपने आप ही बडबडाने लगा की पता नहीं मुझे क्या हो रहा है, मुझे माही क्यूँ दिख रही है. अब मै समझ गयी थी की नींद में है और डर भी रहा है. वो परेशान था की शायद लम्बे समय से चल रहे झगडे की वजह से उसके साथ ऐसा हो रहा है. वो बार बार मुझे छुकर देखता, मुझसे पूछता माहि तुम ही हो क्या? अचानक लाइट जलने के लिए उठा तो मैंने उसके लिए भी उसे रोक दिया. अब उसे पूरा यकीन हो गया था की कमरे में कोई भूत है. वो फिर जोर से काशिफ को आवाज़ लगाने लगा. अब इस तरह बहुत देर हो गयी थी सुबह के साढ़े पांच बज चुके थे. मैंने लाइट जलायी और उसे कहा की मै ही हूँ. इस तरह अचानक मुझे देखकर वो हैरान हो रहा था, कुछ देर तो कुछ बोल ही नहीं पाया. एक साथ उसने मुझसे न जाने कितने सवाल पूछ लिए. शायद प्यार के भूत ने उसे इतना डरा दिया था की उसे समझ ही नहीं आ रहा था की वो क्या कह रहा है. दर से चेहरा पीला पड़ गया था और हाथ पैर ठन्डे हो गए थे. सिर्फ इतनाभर बोल पाया की माही मेरा दिल बैठने को है मुझे थोडा पानी लाकर दो.