नहीं अब नहीं, बहुत मजबूत बना दिया है तुमने मुझे. यक़ीन नहीं आता ना? मुझे भी नहीं आया था. पर देखो ना, हक़ीक़त यही है.
सुक़ून का ठिकाना |
बहुत लंबा वक्त ग़ुजर गया तुम्हारे खेल को. पीछे मुड़कर देखती हूं तो अब तो सच में लगता है क्या किया मैंने? तुम्हारे खेल को इतना डूब के खेला कि खुद को खो गई, लेकिन जानते हो इस खेल ने मुझे बहुत मजबूत बना दिया है. और इसका सबसे बड़ा सबूत यही तो है कि मैं तुम्हें 'ना' बोलना सीख गई. हैरत हुई थी ना चंद दिन पहले मेरे मुंह से 'ना' सुनकर?
क्या करती मैं, कई साल बात तुम्हारा नंबर जब मेरे फ़ोन पर फ्लैश हुआ तो यक़ीन नहीं आया देखकर. इत्तेफ़ाक़ ऐसा कि दोनों यहीं, एक ही शहर में. फ़ोन उठाया मैंने. तुम्हारी ख़ैर भी ली. तुम्हारे चंद सवालों के जवाब भी दिए. लेकिन फिर 'ना' कहा, तुम्हारे सवाल पर कि 'मिलने आओगी मुझसे थोड़ी देर के लिए, उसी कॉफी शॉप पर जहां अकसर मिला करते थे? ज़बान से फ़ौरन 'ना' निकला. न जाने कहां से मेरा दिल इतना मज़बूत हो गया, मुझे खुद को भी हैरानी हुई, पर हुआ यही था.
अब मैं बेफ़िक्र, बेपरवाह और आजाद हूं. नई जिंदगी में, नई मुश्किलों में. नए रंग देख रही हूं, नए रंग रच रही हूं. तुमसे बहुत दूर!
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