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delhi, India
I m a prsn who is positive abt evry aspect of life. There are many thngs I like 2 do, 2 see N 2 experience. I like 2 read,2 write;2 think,2 dream;2 talk, 2 listen. I like to see d sunrise in the mrng, I like 2 see d moonlight at ngt; I like 2 feel the music flowing on my face. I like 2 look at d clouds in the sky with a blank mind, I like 2 do thought exprimnt when I cannot sleep in the middle of the ngt. I like flowers in spring, rain in summer, leaves in autumn, freezy breez in winter. I like 2 be alone. that’s me

Friday, August 26, 2011

याद आई खुशी की वो पहली उड़ान


Aamer Palace Jaipur
आज अचानक वो दिन याद आ रहा है जब हर डर को पीछे छोड़कर मैने खुशी की पहली उड़ान भरी थी। पहली बार अकेले दिल्ली से बाहर जाने की हिम्मत की थी। पता नहीं क्या हुआ आज ऐसा, ऑफिस में काम करते हुए खिड़की से बाहर बरसते पानी को देखकर एकाएक वो सब याद आने लगा जब शारिक के दिल्ली छोड़कर जयपुर जाने के बाद मै पहली बार जयपुर गई। सच में बहुत हिम्मत वाला कदम उठाया था। बस तेज बारिश के साथ अचानक सब ऐसे सामने आ रहा था जैसे कोई फिल्म चल रही हो। 
हमेशा सुना करती थी प्यार कुछ भी करवा सकता है लेकिन हमेशा जेहन में एक ही बात आती थी कि क्या सच में ऐसा होता है। यकीन तब हुआ जब खुद इस एहसास को जिया। शारिक...मेरी जिंदगी...मेरी पूरी दुनिया। मेरी और शारिक की कहानी दिल्ली में शुरू हुई थी। दो अलग सोच के इंसान कब एक साथ चलने लगे पता ही नहीं चला। लेकिन अचानक शारिक को जयपुर शिफ्ट होना पड़ा। ये 2010 की बात है। दिल्ली छोड़कर जब वो जा रहा था जैसे अब कहानी यहीं खत्म हो जाएगी, लग रहा था पता नहीं सब कैसे चलेगा, कैसे मिलेंगे। मन बहुत उदास रहता था और जब भी हम मिलते थे तो सिर्फ उदासी होती थी। खैर शारिक फरवरी में जयपुर शिफ्ट हो गया। कुछ सप्ताह तो वो नियमित आता रहा लेकिन काम के दबाव में ये सिलसिला कम होता गया। एक दिन शारिक ने कहा तुम जयपुर आओ, खूब घूमेंगे फिरेंगे, मस्ती होगी। ये सब सुनकर अच्छा तो लग रहा था लेकिन समस्या थी कि जाऊं तो जाऊं कैसे। पहले कभी घर से अकेले बाहर नहीं गई थी, घर में क्या बताऊं, कैसे झूठ बोलूं वगैरह..वगैरह। लेकिन प्यार की ताकत ने सब डर को पीछे छोड़ दिया। एक सहेली के साथ प्लान बनाया और घर में बताया कि उसके दीदी के घर जयपुर जा रही हूं। प्लान के मुताबिकसब तय हो गया। शारिक के पटना से आए दोस्त मुनीर और काशिफ के भाई आमिर का भी मेरे साथ चलीने का प्लान बन गया। 24 अप्रैल 2010 था, शारिक की गुड्गांव मीटिंग थी तो तय हुआ कि शारिक हमें वहां से गाड़ी में ही ले जाएगा। पांच दिन घर से दूर अपनी दुनिया में जाने की खुशी को शायद ही मै शब्दों में बयां कर पाऊं। तय दिन मै, मुनीर और आमिर गुडग़ांव पहुंचे। अब शारिक की मीटिंग में इतनी देर हुई कि सुबह के पहुंचे हमें रात हो गई। खैर जो भी हुआ खाना खाने के बाद रात करीब 8 बजे हम गुडग़ांव से चले और सफर शुरू हुआ जयपुर का। रास्तेभर दोस्तों के साथ मौज-मस्ती, यकीन ही नहीं हो रहा था मै शारिक के साथ इतनी रात को। सबकुछ खुशनुमां लग रहा था, रोजमर्रा की घड़ी के साथ  वाली जिंदगी बहुत पीछे छूट गई थी। देर रात ढाबे में खाना खाया, गाना गया और इस तरह दिल्ली से जयुपर का 6 घंटे का सफर हमने 8 घंटे में पूरा किया। हम रात के 3 बजे करीब जयपुर पहुंचे।  जिसको जहां जगह मिली वहां सो गए। अगले दिन जब सुबह आंख  खुली तो यकीन ही नहीं हुआ कि मै दिल्ली में नहीं हूं। 
वैसे घर से दूर शारिक के साथ का वो वक्त मुझे बहुत भा रहा था। एकदम आजाद, उन्मुक्त जिंदगी, न सोने का समय न खाने और न ही समय की कोई पाबंदी। बस सुबह से जो हम लोगों का दिन शुरू होता आधी रात को जाकर खत्म होता। इस बीच सबसे बड़ी मुश्किल होती घर में मम्मी को फोन करना, इसके लिए पूरा माहौल तैयार करना पड़ता था। एक फोन करने के बाद पूरे दिन उनका एक भी फोन नहीं आता। उन पांच दिनों में मैने पूरा जयपुर देख लिया। एक बात जो आज भी मुझे याद आती है, एक शाम हम बाहर घूम रहे थे, शारिक मुझसे अचानक बोला आज शाम पहले से ज्यादा अच्छी लग रही है। सच में खूबसूरत लग रही थी वो शाम, इतने लोगों के बीच में हम अपनी ही दुनिया में थे। 

Thursday, August 25, 2011

एक और सफर


Nahargarh Jaipur
दिल्ली से जयपुर जाना अब मेरे लिए अपने घर से उत्तम नगर जाना जैसे हो गया है। कहने का मतलब है कि जयपुर जाने का सिलसिला अब बढ़ गया है। इस बार भी कुछ ऐसा हुआ, वीकेंड था और मेरी जयपुर जाने की तैयारी भी पक्की हो गई। अछी बात ये थी कि शारिक रक्षाबंधन की छुट्टिïयों से ही दिल्ली में था। अब उसे मैने अपनी जाने की बात बताई और कहा कि तुम बुधवार दिल्ली रूको तो गु़रुवार शाम हम कार से ही जयपुर के लिए रवाना हो जाएंगे। खैर शारिक ने पहले तो मना किया लेकिन मेरी जिद के आगे उसे हार माननी ही पड्ती है। कुछ ज्यादा ही उत्साहित थी मै शारिक के साथ जयपुर जाने को लेकर। काशिफ भी दिल्ली में था लेकिन वो एक दिन पहले ही जयपुर के लिए निकल गया था। अब बस गुरुवार को ऑफिस के बाद हम दिल्ली से रवाना हुए। इस बार मेरा जयपुर जाने का मकसद रमजान था ताकि मै उनके तरीके से त्योहार को मना सकूं।
उस दिन मौसम का मिजाज भी बहुत अच्छा था। रात के करीब नौ बजे हमने निजामुद्दीन के करीम में खाना खाया। अक्सर खाने के लिए हम लोग यहीं आया करते हैं। उसके बाद के साढ़े दस बजे हमारी ड्राइव शुरू हुई जयपुर के लिए। रात का सन्नाटा, हल्की बारिश और रेडियो के पुराने गाने पूरी तरह से पिक्चर परफेक्ट थी। बहुत अच्छा लग रहा था शारिक के साथ। अक्सर इस तरह की लांग ड्राइव में शारिक मुझे गाने भी सुनाया करते है। और गाने ऐसे कि वो सिर्फ मै ही सुन सकती हूं। खैर शारिक के उन बेसुरे गानों से सफर और भी खूबसूरत लग रहा था। दिल्ली जयपुर हाईवे पहुंचते ही मानों हमारी गाड़ी हवा से बातें कर रही थी। बहुत ही खास एहसास था, लग रहा था मानो हमारा ये सफर ऐसा ही चलता रहे, ये जानते हुए भी कि मै और शारिक जिंदगी में कभी साथ नहीं चल  सकते। ये एक ऐसी हकीकत है जो मेरे साथ चलती है लेकिन इसके बाद भी मै अपनी जिंदगी शारिक के साथ ऐसे जीती हूं जैसे कल रहूंगी ही नहीं।
 इस खूबसूरत सफर में सिर्फ एक चीज बाधा लग रही थी, वो था गाड़ी का एसी। मुझे बाहर की ठंडी हवा अच्छी लग रही थी कि लेकिन हाईवे में खिड़की खोलकर गाड़ी चलाना संभव ही नहीं है। शारिक की बांहों में पुराने गानों के साथ रास्ते में कुछ जगहों में रूकते हुए हमारा सफर रात के साढ़े तीन बजे पूरा हुआ। साढ़े तीन बजे हम घर में थे और घर की हालत देखकर मुझे जयपुर पहुंचने की खुशी से ज्यादा चिंता हो रही थी कि पूरा अस्त-व्यस्त घर को कल सुबह से उठकर ही समेटना पडृेगा। मै अक्सर त्योहार के मौके पर कोशिश करती हूं कि एक दिन शारिक के साथ जरूर बिताऊं, खासतौर पर उनलोगों के त्योहार। इस बार भी दो दिन के लिए जयपुर जाने का मकसद रमजान ही था। मेरे मन में हमेशा रहता है कि मै शारिक के साथ नहीं रह पाऊंगी तो क्यों ना जितने दिन हम साथ में है मै अपनी पूरी जिंदगी जी लूं। बस इसी एहसास के साथ मेरा हर एक दिन गुजर जाता है। अगले दिन सुबह दोनों ही ऑफिस निकल गए। हर बार की तरह उनके जाने के बाद मै बाई के रोल में आ गई। दोपहर के दो बज गए घर साफ करते हुए। तभी शारिक का फोन आया, उसने पूछा मै क्या कर रही हूं, मै बताया अभी सफाई पूरी हुई है, इसके बाद नहाकर मै शाम के इफ्तार की तैयारी करूंगी। मै उससे कहा तुम टाइम से घर आना मै इंतजार कर रही हूं। बहुत अच्छा लग रहा था। मुझे एक पल के लिए ऐसा एहसास हुआ जैसे सिर्फ माही नहीं माही शारिक अहमद हूं। शाम के इफ्तार के लिए मैने प्याज की पकौड़ी, आलू की पकौड़ी, साबूदाने का पुलाव, साबूदाने के पकौड़े और खीर बनाई उसे मैने अच्छे से डाइनिंग टेबल पर सजाया। तब तक शारिक भी घर आ गए थे और हम दोनों टीवी देख रहे थे। इफ्तार का समय हुआ और हम दोनों इफ्तार करने बैठे, मैने रोजा तो नहीं रखा था लेकिन इफ्तार के वक्त मैने यही दुआ कि हमदोनों हमेशा साथ रहे। कहते हैं इफ्तार के समय की जाने वाली दुआ अल्लाह कबूल कर लेते हैं। आमीन....

Saturday, August 6, 2011

दिल्ली की बारिश और यादें

 mansarover flat's main gate, jaipur
दिल्ली की बारिश की बात ही कुछ और है. हालाँकि दिल्ली में बारिश अब नाम के लिए ही रह गयी है लेकिन फिर भी यहाँ के हर मौसम की अपनी ही खासियत है. एक अजीब सी मोहब्बत है इस मौसम से, बारिश की अपनी ही बात है, सब कुछ उजला, धुला हुआ, और जब बारिश की बूँदें चेहरे को छूती है तो मनो इसका संगीत एक नई ताजगी देता है. हर बरसात के साथ जुडी कुछ ख़ास याद. स्कूल, कॉलेज, ऑफिस हर दौर की कुछ कुछ बातें जो हमेशा ही याद आती है. बचपन में बारिश के पानी को जमा करके उसमें नाव चलाना तो कॉलेज के दिनों में क्लास बंक करके दोस्तों के संग मौज-मस्ती, सड़क किनारे जमा पानी में छई-छप-छई तोह घंटो बारिश में बस स्टॉप में बैठना. इन सब मस्ती के बाद भी मै बारिश के साथ एक ख़ास वक़्त बिताती थी. लेकिन अब वक़्त के साथ सब कुछ छूटता जा रहा है. आज भी बारिश तो होती है लेकिन मौज मस्ती के नाम पर ऑफिस का अपना डेस्क, किताबें, चाय और खिड़की से बहार बरसते पानी का नज़ारा. दिल्ली की भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी में अब फुर्सत के पल कहीं बहुत पीछे छूटते रहे हैं. लें आज भी अगर मौका मिलता है तो मै अपना बैग लिए इंडिया गाते की ओर चल देती हूँ, खुद के साथ थोडा वक़्त बिताने के लिए. सड़क किनारे बच्चों को बारिश में खेलता देख, स्कूल से घर जाते बच्चों को देख, कॉलेज के स्टुडेंट्स को बस स्टैंड में देख वो दिन याद आ जाते हैं. इस तरह चलते-चलते कई बातें आँखों के सामने आती हैं, छोटी-छोटी खुशियाँ आज भी चेरे पर मुस्कान ले आती है. फिर अचानक एहसास होता है न जाने वो वक़्त कहाँ खो गया है. पहले कुछ नहीं होता था लेकिन ढेर सारी खुशियाँ होती थी, आज सब कुछ है लेकिन खुश होने के लिए कुछ नहीं है. ज़िन्दगी इतनी उलझ गयी है की पता ही नहीं है क्या हो रहा है. अब सब कुछ बदल गया है, हमेशा कुछ खोने का डर, वक़्त एक जैसा न होने का दुःख, सब कुछ पहले जैसा न होने की एक खीज है. लगता है वक़्त एकबार फिर पीछे चला जाये. बस ज़िन्दगी खुलकर जीने का मन है, ऐसे जीने का जैसे कल सब ख़तम हो जाएगा, सिर्फ आजभर का वक़्त है. 

Friday, August 5, 2011

पता नहीं वक़्त बदलता है या लोग

वक़्त तो तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन समझ ही नहीं आता है की वक़्त बदलता है या लोग? इस बात को लेकर मेरे और शारिक के बीच न जाने कितनी ही बहस होती है, उसका कहना होता है की वक़्त के साथ रिश्ते गंभीर होते हैं तो मुझे लगता है लोग बदलते हैं. बदलाव चाहे जिमेदारियों की वजह से आये या फिर काम की वजह से बदलाव तो आते ही हैं. अब मै आपको  2 अगस्त का किस्सा सुनाती हूँ. यह हमारी एनिवेर्सेरी है, हर साल की तरह मुझे इंतज़ार की साहब मुझे फ़ोन करेंगे, हम लोग बात करेंगे और एक बार फिर पुराने दिन को याद करेंगे. इन सब बातों के साथ मेरे दिन की शुरुआत हुई. सुबह मै तैयार हुयी और मैंने वही कपडे पहने जो कभी मै उससे पहली बार मिलने पर पहने थे. अच्छा लग रहा था, सुबह से मई बहुत कुश भी थी. लेकिन मेरी ख़ुशी दोपहर तक गायब हो रही थी. मेरी नज़रें सिर्फ और सिर्फ फ़ोन पर थी. लेकिन 2 बजे तक भी शारिक ने कोई फ़ोन नहीं किया तो मैंने ही हार कर उसे एक sms किया..sms में लिखा " happy 2 august..love u n thnx for not remembering the day" थोड़ी देर बाद उसका भी जवाब आया; लेकिन अब भी उसके पास इतनी फुर्सत नहीं थी की वो एक फ़ोन करे. गुस्सा तो बहुत आ रहा था पर उससे भी ज्यादा वो सब बातें याद आ रही थी जहाँ से सब कुछ शुरू हुआ था. 
अब मेरा ऑफिस भी नॉएडा हो गया है. मेरी और शारिक की कहानी भी यहीं आस पास से शुरू हुई थी. शारिक शिप्रा सनसिटी में रहता था. बस काम में मन ही नहीं लग रहा था. थोड़ी देर सीट में बैठने के बाद मै ऑफिस की छतपर चली जाती. इस ऑफिस की छत से सनसिटी साफ़ नज़र आता है. बस चाय की चुस्की और हलकी बारिश में मै मनो फ्लाश्बैक में चली गयी थी. ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत वक़्त मनो उन कुछ घंटो में मैंने देखा.  मन कर रहा था वक़्त एक बार फिर पीछे चले जाये और मै उस ज़िन्दगी को एक बार फिर से जे लूँ. सनसिटी के वो दिन बहुत याद आते हैं आज भी. वो इत्मीनान, वो सुकून, वो ख़ुशी, वो पल आज चाह कर भी नहीं मिल सकते हैं. खैर जैसे तैसे शाम तोह गुज़री लेकिन उदास होने के साथ ही गुस्सा भी बहुत आ रहा था. लग रहा था फ़ोन करके खूब झगडा करूँ फ़ोन भी किया, झगडा शुरू भी हुआ लेकिन रोज़ा चलने की वजह से ज्यादा नहीं झगड़ी.
परेशान मै बस सुकून ढून्ढ रही थी, मैंने ऑफिस से ऑटो किया और सीधा आनंद विहार आ गयी. पहले सोचा घर जून, फिर मन में आया क्या हुआ अगर शारिक साथ नहीं है तो, मै तोह उस जगह जा ही सकती हूँ जहाँ हम मिले. मै ऑटो से उतरकर सीधा edm mall आ गयी. मैंने वहां straberry crush icecream लिया और जाकर उस्सी जगह में बैठ गयी जहाँ मै और शारिक जाया करते थे. एक बार फिर वही सब आँखों के सामने से गुज़र रहा था. मैंने शारिक को फ़ोन किया, और पूछा सिर्फ एक बात बता दो शायद यही सुनकर थोडा ठीक लगे, सिर्फ इतना बता दो की वक़्त बदलता है लोग ? लेकिन उसकी तरफ से कुछ जवाब नहीं आया, अक्सर ऐसे जवाब शारिक हमेशा देने से बचता है. लेकिन मेरे सच में कोई बताये वक़्त बदलता है या लोग???