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Aamer Palace Jaipur |
हमेशा सुना करती थी प्यार कुछ भी करवा सकता है लेकिन हमेशा जेहन में एक ही बात आती थी कि क्या सच में ऐसा होता है। यकीन तब हुआ जब खुद इस एहसास को जिया। शारिक...मेरी जिंदगी...मेरी पूरी दुनिया। मेरी और शारिक की कहानी दिल्ली में शुरू हुई थी। दो अलग सोच के इंसान कब एक साथ चलने लगे पता ही नहीं चला। लेकिन अचानक शारिक को जयपुर शिफ्ट होना पड़ा। ये 2010 की बात है। दिल्ली छोड़कर जब वो जा रहा था जैसे अब कहानी यहीं खत्म हो जाएगी, लग रहा था पता नहीं सब कैसे चलेगा, कैसे मिलेंगे। मन बहुत उदास रहता था और जब भी हम मिलते थे तो सिर्फ उदासी होती थी। खैर शारिक फरवरी में जयपुर शिफ्ट हो गया। कुछ सप्ताह तो वो नियमित आता रहा लेकिन काम के दबाव में ये सिलसिला कम होता गया। एक दिन शारिक ने कहा तुम जयपुर आओ, खूब घूमेंगे फिरेंगे, मस्ती होगी। ये सब सुनकर अच्छा तो लग रहा था लेकिन समस्या थी कि जाऊं तो जाऊं कैसे। पहले कभी घर से अकेले बाहर नहीं गई थी, घर में क्या बताऊं, कैसे झूठ बोलूं वगैरह..वगैरह। लेकिन प्यार की ताकत ने सब डर को पीछे छोड़ दिया। एक सहेली के साथ प्लान बनाया और घर में बताया कि उसके दीदी के घर जयपुर जा रही हूं। प्लान के मुताबिकसब तय हो गया। शारिक के पटना से आए दोस्त मुनीर और काशिफ के भाई आमिर का भी मेरे साथ चलीने का प्लान बन गया। 24 अप्रैल 2010 था, शारिक की गुड्गांव मीटिंग थी तो तय हुआ कि शारिक हमें वहां से गाड़ी में ही ले जाएगा। पांच दिन घर से दूर अपनी दुनिया में जाने की खुशी को शायद ही मै शब्दों में बयां कर पाऊं। तय दिन मै, मुनीर और आमिर गुडग़ांव पहुंचे। अब शारिक की मीटिंग में इतनी देर हुई कि सुबह के पहुंचे हमें रात हो गई। खैर जो भी हुआ खाना खाने के बाद रात करीब 8 बजे हम गुडग़ांव से चले और सफर शुरू हुआ जयपुर का। रास्तेभर दोस्तों के साथ मौज-मस्ती, यकीन ही नहीं हो रहा था मै शारिक के साथ इतनी रात को। सबकुछ खुशनुमां लग रहा था, रोजमर्रा की घड़ी के साथ वाली जिंदगी बहुत पीछे छूट गई थी। देर रात ढाबे में खाना खाया, गाना गया और इस तरह दिल्ली से जयुपर का 6 घंटे का सफर हमने 8 घंटे में पूरा किया। हम रात के 3 बजे करीब जयपुर पहुंचे। जिसको जहां जगह मिली वहां सो गए। अगले दिन जब सुबह आंख खुली तो यकीन ही नहीं हुआ कि मै दिल्ली में नहीं हूं।
वैसे घर से दूर शारिक के साथ का वो वक्त मुझे बहुत भा रहा था। एकदम आजाद, उन्मुक्त जिंदगी, न सोने का समय न खाने और न ही समय की कोई पाबंदी। बस सुबह से जो हम लोगों का दिन शुरू होता आधी रात को जाकर खत्म होता। इस बीच सबसे बड़ी मुश्किल होती घर में मम्मी को फोन करना, इसके लिए पूरा माहौल तैयार करना पड़ता था। एक फोन करने के बाद पूरे दिन उनका एक भी फोन नहीं आता। उन पांच दिनों में मैने पूरा जयपुर देख लिया। एक बात जो आज भी मुझे याद आती है, एक शाम हम बाहर घूम रहे थे, शारिक मुझसे अचानक बोला आज शाम पहले से ज्यादा अच्छी लग रही है। सच में खूबसूरत लग रही थी वो शाम, इतने लोगों के बीच में हम अपनी ही दुनिया में थे।