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उन पांच दिनों की हर रात न जाने कैसी लग रही थी.....कभी ज़हन से नहीं जाएगी.....और क्यूँ नहीं रहेगी मेरी यादों में, आखिरी कुछ दिन जो थे तुम्हारे साथ, उस घर में, उसकी बालकनी में. मै बदहवास सी होकर पूरे घर में घूम रही थी. उसके हर कोने को छू रही थी. दोनों रो रोकर बेजार थे लेकिन कोई साथ में नहीं था, वक़्त ने तो साथ ना जाने कब से छोड़ दिया था. तुमने कहा माही यही वक़्त है, चलो सब भूल जाते हैं, किस्मत अपना फैसला सुना चुकी है पर ये कुछ वक्त हमारा है. इस पर तो खुदा का भी जोर नहीं....मेरे मन में आया खुदा? जाने कौन है ये खुदा?
हम दोनों हाल में बैठ गए, तुमने फिल्म बर्फी लगायी....हम दोनों फिल्म देखने लगे. खूबसूरत फिल्म, एक खूबसूरत संदेश लिए हुए. मोहब्बत का कोई मजहब, कोई भाषा नहीं होती. वो तो मोहब्बत है जिससे होती है बेलौस हो जाती है. लेकिन हम अलग हो रहे थे इसी मजहब के लिए....आखिरी कुछ पल एक दूसरे के साथ...
हम दोनों सिर्फ वो गाना सुनने के लिए पूरी फिल्म देख रहे थे.....सच बेहद खूबसूरत गाना.... 'इतनी सी हंसी..इतनी सी खुशी..इतना सा टुकड़ा चांद का.......वो गाना आया स्क्रीन पर, नहीं रोक पाई अपने आंसू, तुमने भी नहीं पोंछा आंसूओं को. तुम बोले जितना हो सके रो लो...मत रोको खुद को....
मैने तुमसे एक सवाल किया....जिस खुदा की तुम बात करते हो क्यों उन्होंने मेरी छोटी सी दुनिया को मुक्कमल नहीं किया? मैने तो एक दुनिया बनाई, मेरी दुनिया लेकिन क्यों आज मै तिनके भी समेट नहीं पा रही हूं, क्यों? क्यों मुमकिन नहीं हुआ जिंदगीभर एक दूसरे का साथ?